कभी नींद आती थी.. आज सोने को “मन” नही करता, कभी छोटी सी बात पर आंसू बह जाते थे.. आज रोने तक का “मन” नही करता, जी करता था लूटा दूं खुद को या लुटजाऊ खुद पे.. आज तो खोने को भी “मन” नही करता, पहले शब्द कम पड़ जाते थे बोलने को.. लेकिन आज मुह खोलने को “मन” नही करता, कभी कड़वी याद मीठे सच याद आते थे.. आज सोचने तक को “मन” नही करता, मैं कैसा था? और कैसा हो गया हूं.. लेकिन आज तो यह भी सोचने को “मन” नही करता. फिर भी सब हमसे शिकायत करते हैं.. क़ि हम पत्थर होते जा रहे हैं, कोई इन हालातों से भी तो पूछो, जो बद से बदतर होते जा रहे हैं। P.S.: I did not write this poem I saw it somewhere on internet and liked it instatntly So posted it here.
Let all the feelings flow freely, whether anyone like it or not.